झाड़ू लेकर मैं चला , गंदा मिला न कोय
जो घर देखा आपना , मुझसा गंदा न होय
मीडिया के साथी मेरे , अपना मीडिया होय
स्ट्रिंग अपना कैसे हुआ , झाड़ू दिया भिगोय
गले मे मफ़लर, खो खो खांसी , बंगलुरू विश्राम
कौन बना है बाप आपका ,छिड़ा हुआ संग्राम
बिजली सस्ती, पानी मुफ्त , वाईफ़ाई पैसों से मुक्त
दिल्ली मांगेगी हिसाब , अब कैसे दूँ मैं एक मुस्त
नई खरीदी झाड़ू अपनी , बिखरी जाती सींकें
अभी भी खांसी ठीक नही है , आने लगी हैं छींकें
राजनीति मे आकार जाना , राजनीति का गंदा खेल
दिल्ली की कुर्सी से अच्छी अब तो लगती सेंट्रल जेल।
-कुशवंश
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